31.10.18

चलन में सिक्कों की बहुतायतता



नोटबंदी  के बाद लोगों ने डिजिटल लेन-देन को व्यवहार में ज्यादा से ज्यादा लाना शुरू कर दिया। छोटे-मोटे पेमेंट के लिए Paytm Wallet  जैसे  वालेट को बढ़ावा मिला ।  जो कैश-लेश के साथ-साथ वेट-लेश भी था।  आज अधिकतर  लोग चाय-पानी  बिजली- पानी , पेट्रोल , डॉक्टर फी , मेडिशन आदि के भुगतान के कुछ  इसी तरह के वालेट का प्रयोग करते है। 
भुगतान के रूप में केश (Cash) से अलग सब्सिट्यूट  मिलने व् मुद्रा स्फीति ( Inflation) के  कारण  बाजार में भुगतान के लिए  सिक्कों (coins) की मांग आश्चर्यजनक रूप से घटी है। 
चलन (Circulation) में  सिक्को की अधिक उपलब्धता  व्  उनको  बैंको दवरा असुविधा के कारण  जमा करने से अस्वीकार करने के कारण, लोग सिक्को को लेने से कतराने लगे है।  इस समय  50 पैसे से लेकर 10 रूपये तक के सिक्के चलन में है। परन्तु  कुछ सिक्के लोगो दवरा अस्वीकार  किये जाते है ।  जैसे  50 पैसा का  सिक्का , एक रूपये का छोटा सिक्का आदि-आदि  

हैरानी की बात यह है कि 10 रूपये के 14 प्रकार के  सिक्कों में से केवल एक विशेष प्रकार के डिजाइन वाला सिक्का ही लोगों द्वारा स्वीकार किया जा रहा है । एक तरह से सिक्कों पर ग्रेशन के नियम का यह अपवाद लागू है-  जिसमें न लोग बुरी मुद्रा लेंगें, न देंगे । यहां दस रूपये के 13 प्रकार के डिजाइन  वाले  अन्य सिक्को को आम लोग बुरी मुद्रा के रूप में लेते है।
 पूजा स्थलों आदि में करोड़ों के सिक्के बैंकों में आसानी से न जमा होने के काऱण जमा है। बिना उपयोग के  यूं ही  पड़े सिक्कों से पूंजी का प्रवाह तरलता  रूकती है 

उपरोक्त स्तिथि को देखते हुए सरकार से अनुरोध है कि डिजिटल लेन-देन  को देखते  हुए  चलन में प्रचलित सिक्कों का कुछ प्रतिशत सिक्कों ( 25%-30%)  बैंको या अन्य  एजेंसी के माध्यम से चलन अथवा बाजार से  वापस ले। 
 इससे लाखो लोगों को सिक्कों के अस्वीकार करने का सामना भी न करना पड़ेगा।  छोटे-छोटे  फुटकर व्यापारी, धार्मिक  स्थल , बैंक आदि को भी ठहरी  पूंजी में तरलता मिलेगी। 
 इस सम्बन्ध सरकार दवरा उठाया गया सकारात्मक कदम निश्चय ही न केवल लोगों के मन जीतने का काम करेगा वरन  बाजार में पूंजी की उपलब्धता  को भी बढ़ाएगा  जिससे रोजगार उत्पन्न करने में सहायता मिलेगी   




17.10.18

तू पागल !

पागल शब्द बच्चा,बूढ़ा, जवान सभी लगभग हर रोज दिन में न जाने कितनी ही बार जाने अनजाने  प्रयोग करते  हैं। यहाँ यह भी है कि  पागल का अर्थ पागल ही हो , यह कतई जरूरी नहीं ।  इसका आशय वाक्य या परिस्तिथि पर निर्भर करता है, जब जहाँ इसे बोला गया हो। कहने का तातपर्य यह कि पागल शब्द का अर्थ हर बार बदल सकता है। शायद  लोगों का इसी लिए पागल  शब्द के प्रति पागलपन  किसी  दीवनगी की हद तक है। 
कुछ उदाहरण इस प्रकार है  -क्रोध में पागल , प्यार में पागल , सरकार का पागल होना , अरे!  यार छोडो !उसकी बातों पर मत जाओ ! पागल है !!
 कह सकते है पागल शब्द उस एंटीबॉयटिक दवा की तरह है, जिसे  लोग  बिना  सोचे समझे प्रयोग करते रहते है।  अरे ! मै  भी पागल  हूँ ! आया  था हरी भजन को ,ओटन  लगा कपास।    
इसी पागल  शब्द पर घटित May,16 की  घटना  याद  हो आयी। लॉ एग्जाम  के कारण  एक वर्षीय जुड़वाँ नातिनों में से एक जिसे प्यार से "छुट्टन" कहते है , को श्रीमती जी ने अपने पास रख लिया। "छुट्टन"  देर रात  तक  जागती। 
 ठुमक कर ,कभी सरक कर यहाँ, कभी वहां , कभी  इस कमरे से उस कमरे में , कभी  गोद  में,  कभी  जमीन पर , कभी  पलंग  पकड़कर  खड़े  रहना , कभी  ट्यूब  लाइट की  तरफ एकटक  देखना आदि-आदि  उसके खेलों में शामिल था। परिवार के सदस्य देर रात तक जागकर खेल लीला  का आनंद लेते।     
हम कभी-कभी प्यार से  कहते -" ऐ  पागल ! सो जा !" कहते है न " THE CHILD IS FATHER OF THE MAN" 
 शायद पागल शब्द का जादू छुट्टन पर भी चल चुका था । छुट्टन उन दिनों बोलती न थी। परन्तु 
एक दिन देर रात के जागने से परेशान हो जैसे ही उसे बोला  - “पागल सो जा !”
वो तपाक से बोल पडी - तू पागल ! ये उसका पहला  वाक्य  था !! शायद वह यह शब्द की महत्ता को पहचान  चुकी थी !



5.10.18

सावधान ! सावधान !-सफाई कर्मी हड़ताल पर !

12 Sep.,18  से पूर्वी दिल्ली नगर निगम ( “EDMC “) के  सफाई कर्मी लगातार  हड़ताल पर है।  गलियों , सड़कों पर कूड़े के ढेर लगे है। दिल्ली  राज्य सरकार  के अंतर्गत आने  वाले दिल्ली के तीन  निगमों से एक “ EDMC”  की  कमजोर  वित्तीय स्तिथि  ने  अपने कर्मियों की सैलरी के लिए    पूर्ण रूप से  राज्य की सरकार  फंडिंग पर निर्भर  बना  दिया है। वर्तमान स्तिथि  को देखकर ऐसा   लगता है - राज्य सरकार  व्   नगर निगम  में आपसी तालमेल का  पूर्ण अभाव है।  परिणामस्वरूप  हानि   आम  नागरिकों  को उठानी  पड़  रही है।  राज्य सरकार से  समय पर फंडिंग ने मिलने के कारण  निगम  , अपने कर्मियों को  वेतन  व् अन्य  भत्तों  दे पाने में असमर्थ है । इन्हीं मांगों को लेकर सफाई कर्मी हड़ताल पर है । 
 आम नागरिकों की  स्तिथि खरबूजे जैसी है। चाकू खरबूजे पर गिरे  या खरबूजा  चाकू पर !  दोनों ही हालत  में कटना  खरबूजे को ही है।    
आम लोगों का मानना है कि  राज्य सरकार  केंद्र या निगम से  नाराज  होकर या मीडिया अटेंशन के लिए, जब तब  निगम   की फंडिंग रोक देती है ।  इससे  वेतन आदि न मिलने पर  निगम कर्मी  हड़ताल करते है।  ऐसा लगभग दिल्ली की जनता पिछले  साढ़े  तीन वर्ष से अधिक समय से  देखती आ रही  है।     

जब तक सफाई कर्मियों की हड़ताल खत्म नहीं हो जाती ।  सड़कों पर  कूड़ा न फैले इसके लिए निगम  व् राज्य  सरकार को एडवाइजरी  जारी  करनी चाहिए ।
 जिसमें  क्या  करें  और क्या  न करें   की  सलाह  हो -
 जैसे -
-हड़ताल के दौरान  नागरिकों  को  कूड़ा  केवल  ढलाव  घर पर ही डालना  चाहिए।
 -नागरिक कार पूल की तरह “ डस्टबिन-पूल” करके  बारी -बारी से एक दूसरे का कूड़ा ढलाव घरों पर ही डाल सकते है।  ऐसा करने से   हड़ताल के समय  कम परेशानी  होगी ।
- हड़ताल के  समय सड़क , गली  में कूड़ा  बिलकुल न डाले। 
हड़ताल के समय ढलाव पर कूड़े डालने  का कार्य पं म मोदी जी के स्वच्छता  अभियान को सफल  बनाने का एक  सफल प्रयास माना  जाएगा।   
 हड़ताल के समय  नागरिक  वेट एन्ड  वाच की नीति पर चल , निगम  व् राज्य  सरकार  के  वाक् युद्ध में हार- जीत के फैसले का  धैर्य पूर्वक इन्तजार करना चाहिए । अर्थात  तेल देखें  व् तेल की धार देखें। 
यदि सम्बंधित प्रशासन सफाई कर्मी  हड़ताल से पूर्व कुछ इसी तरह की एडवाइजरी नागरिकों के लिए जारी कर दे तो सड़कों पर कूड़ा भी न फैले  व्  गंदगी के ढेर भी न लगे। 
लोग यह सोचते हुए  -चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय !
                 दो पाटन  के बीच में साबुत  बचा न कोय ।।  हड़ताल  को एन्जॉय  कर सकते है । 

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3.9.18

बचपन -एक प्ले स्कूल


    हमारे बचपन में प्ले-स्कूल नहीं होता था। हाँ ! एक ही प्ले-स्कूल था जो  किताबी ज्ञान पर आधारित न हो, व्यवहारिक ज्ञान व् प्रकृति से करीब  से जुड़ा था । 
प्ले-स्कूल के लिए पांच-छह बरस तक हम अपने छोटे से फार्म हाउस (खेत खलियान )  में घूमना, गन्ने के खेतों में लुका-छुपी (आइस-पाइस) खेलना, केचुओं, मेढकों, झींगुर आदि से खेलना, मटर के सफ़ेद-नीले-जामुनी-लाल-गुलाबी फूलों के साथ अटखेलिया करना, मटर के पापड़ों (फलियों) को जी भर कर खेत में खाना, अपने बचपन के प्ले स्कूल की मटरगस्ती की दिनचर्या थी।  
 प्ले-स्कूल  में फरवरी-मार्च में मुलायम हरी बरसीम की फसल में तितलियों को पकड़ने के लिए पागलों की तरह उनके पीछे-पीछे  दौड़ना , तितली का लाल-पीला-गुलाबी रंग हाथ पर लग जाने पर, शर्ट से पौंछना, आये दिन के करतबों में शामिल था ।  

 मुलायम , मखमली हरी-हरी बरसीम की फसल में ( वह घास है जो सर्दी में पशुओं को हरे चारे के रूप में खिलाई जाती है) हम गधे की तरह लौट-पोट होते हुए, आज के मकरासन सा कुछ करते थे ( यह आसन कमर, पीठ दर्द में सहायक है ) इससे जो खुशी मिलती थी,  उसकी बात ही कुछ और थी। 
खड़ी बरसीम की फसल के ऊपर लौटने से  वह जमीन पर बिछ जाती थी, जिससे उसकी कटाई में काफी कठिनाई होती थी।  अतः  डांट के डर से गेहूं या गन्ने के खेत में छुप, दम-साध कर बैठ जाते थे। हमारे प्ले-स्कूल में यह आज की तरह का सेल्फ मेडिटेशन  अर्थात ध्यान करने का  अपनी तरह का बचाव के जुगाड़ था। ऐसा करने से एक पंथ दो काज हो जाते थे। डांट  भी न पड़ती व् पिताश्री बात भूल, हमारे साथ लुका-छुपी में शामिल हो जाते थे। जिससे हींग लगे न फिटकरी रंग चौखा आता था   

 उन दिनों वर्षा लगातार हप्ते भर या पंद्रह पंद्रह दिन (पखवाड़े )तक चलती रहती थी।  वृक्षारोपण के लिए जुलाई-अगस्त में खेतों के किनारे बाड़ व् जलावन की लकड़ी लिए शीशम के पेड़ लगाये जाते थे । शरारत  में हम शीशम की  डंडी ही जमीन में गाड़ देते थे । लगातार  बारिश से बिना जड़ वाली रोपी  डंडी  भी  हरी हो , जीवन का सन्देश दे हम पर मुस्कराने लग जाती थी। जो हमारे बालपन में हमें खुशी व् उलझन से  भर देती थी। 

 बरसात के दिनों में शाम को अन्धेरा होते ही जुगनू खेतों में , फसलों पर, घर- आँगन में चमकने लगते थे। दौड़कर पकड़ना व् उनमें पैदा होने वाली रोशनी पर गहरी छान-बीन/खोज ,रिसर्च करना, यह हमारे बचपन में आये दिन का काम था।    

सितम्बर के अंत, अक्टूबर के शुरू में जब  वर्षा ऋतु खत्म हो जाती थी, गांव के तालाब/ बड़ी डाबर में कमल के फूल खिलने शुरू हो जाते थे। 
हम गहरे पानी से कमल के फूलों को खोखली डंठल सहित पानी से बाहर  केले के पेड़ से बनी नाव तैरते हुए गहरे पानी से निकाल लाते थे। केले के तने पर क्यों , कैसे तैरते थे यह बचपन में किसी छुपे रहस्य से कम न था।  
वर्ष 2018 में इसी तरह का नाव का प्रयोग केरल में आयी बाढ़ में  लोगों के बचाव के लिए किया गया ,ऐसा न्यूज पेपर के माध्यम से पढ़ने को मिला है।   


 बचपन के प्ले-स्कूल में  बछड़े के दूध में भागीदार बन गाय का दूध पीना भी एक मजेदार प्ले था। कहते है -आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है।   दूध की आवश्यकता ने खेल-खेल गाय का दूध निकलना सिखा दिया । 
दूध निकालने के बाद गाय बछड़े के लिए दूध उतारती है। मैं भी थनों से निकलते गर्म दूध में बछड़े व् पालतू बिल्ली का सहभागी बन जाता था।  बिल्ली मौसी दूध के चक्कर में गाय के आस-पास ही मंडराती रहती थी , उसके  मुहं में दूर से दूध की धार मारना प्ले-स्कूल की ट्रेनिंग का एक भाग था। खेल-खेल में अपने बागीचे के बाग़ में आम, अमरूद, जामुन के पेड़ पर उतरना-चढ़ना, लटकना ,पेड़ पर लगे पक्षियों के घोंसलों में अण्डों व् उनके बच्चों की छान-बीन करना , ऊंची से ऊंची डाल पर घंटों बैठ ध्यान लगाकर बैठना बड़ा ही अच्छा लगता था। 

डाल पर बैठ ,ध्यान में दीन-दुनिया से बेखबर कभी-कभी तो दाल टूटकर  पैरासूट की तरह जमीन पर सूखे पत्तों पर धम से आ गिरती। ऐसे में हल्की सी मुस्कान से ध्यान भंग हो जाता। घर वालों की डांट के भय  से ,पेड़ से गिरने की घटना का जिक्र न हो जाये, यही सोचकर हम  घर में भीगी बिल बन  दबे-पाव दाखिल हो जाते, चुपके से खटिया पर सो जाते ।  


भैस, गाय, बैल, भैसा आदि संग गर्मी में अपने इस्लामिया प्राइमरी स्कूल जिसे सभी मदरसा कहते थे, के पीछे जोहड़ में भैस की पीठ पर बैठ कर तैराकी का प्रशिक्षण लिया करते थे। 
उन दिनों गांव में कच्ची मिट्टी से बने मकान होते थे जिनकी  मरम्मत जोहड़ से निकले चिकने गारे (चिकनी मिट्टी ) से बरसात आने से पहले की जाती थी। जिसे अप्रैल-मई-जून माह  में तालाब से  निकाला जाता था। 
 प्ले करते हुए गारे से भरी बाल्टी तालाब के पानी से भर कर लाते  थे , पर न जाने क्यों  गहरे  पानी में गारे से भरी बाल्टी का वजन न के बराबर लगता था।  ऐसा क्यों होता था ? उत्सुकतावश इसे  बार बार  दोहरा कर हम अपने मन की जिज्ञासा शांत करते थे । 

 अंत में निष्कर्ष यह  कि  बचपन में हमे भले किताबी ज्ञान से दूर रहें हो परन्तु  प्रकृति के नजदीक रहकर व्यवहारिक ज्ञान व् पर्यावरण का सन्देश मिला।  जो यह कहता हुआ नजर आता था -"जीवो और जीनों दो में ही जीवन का असीम सुख है ।  बचपन की यादें फिर कभी अन्य ब्लॉग में !

जय हिन्द ! जय भारत !जय श्री कृष्ण ! जय श्री श्याम !


12.8.18

दिल्ली-मेरठ रेल कॉरिडोर का हरिद्वार तक विस्तार



दिल्ली-मेरठ सेमी हाईस्पीड रेल कॉरिडोर (RRTS ) पर मोदी सरकार जोर-शोर से कार्यरत है। जनता इस सपने को जल्द से जल्द साकार देखना चाहती है। अभी यह कॉरिडोर दिल्ली से मेरठ (मोदीपुरम) तक प्रस्तावित है। 9th  Aug.,18  मानसून सत्र  में  मुजफ्फरनगर  सांसद व् पूर्व राज्य मंत्री Dr. संजीव  बालियान ने  इस प्रोजेक्ट को  मुजफ्फरनगर (जो वर्ष 2015 में NCR में शामिल किया गया ) तक विस्तार देने का मामला लोक सभा के पटल पर उठाया । 
क्षेत्र के विकास , क्षेत्र की जनता को राजधानी दिल्ली से बेहतर कनेक्टिविटी देने के लिए इस रेल कॉरिडोर को मोदीपुरम से मुजफ्फरनगर तक ही सीमित  नहीं रखना चाहिए  बल्कि उत्तराखंड के रूड़की-हरिद्वार तक विस्तार देने की तुरंत आवश्यकता है।  
कारण, उत्तराखंड बनने के बाद  हरिद्वार में तीर्थ यात्रियों की दर में हर वर्ष तेजी से  वृद्धि  हो रही है। जो उत्तराखंड के आर्थिक लाभ लिए एक शुभ संकेत है।
हरिद्वार दिल्ली  के  नजदीक होने के कारण वर्तमान समय में  धार्मिक अनुष्ठान , मेला , त्योहारों व् शनिवार-रविवार को तीर्थ यात्रियों में भारी वृद्धि हो जाती है।  सावन के महीनों में कावड़  यात्रा के समय यह मार्ग लगभग एक सप्ताह तक बंद रहता है।  निजी व् सार्वजानिक  वाहनों की हाइवे पर लम्बी कतारें लग जाती है।  कुम्भ  के मौके पर  श्रद्धालुओं  की भीड़ के आगे  निजी व् सार्वजनिक  यातायात के साधन  बोने  साबित  हो जाते है ।
क्षेत्र के विकास , पर्यावरण के सुरक्षा  व् तीर्थ यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखते  हुए दिल्ली- मेरठ  कॉरिडोर का विस्तार हरिद्वार तक देने का निर्णय  यदि मोदी सरकार करती है तो यह इस क्षेत्र के  विकास  में एक मील का पत्थर  साबित होगा। अभी 16th लोक सभा का  समय बाकी है ।
 आशा है मोदी सरकार जो जाति-धर्म, वोट बैंक व्  तुष्टिकरण की  नीति से  ऊपर उठकर करप्शन फ्री  होकर  बहुसख्यक-अल्पसंख्यक  को एक आंख से देखते  हुए बिना भेदभाव के  सबके साथ व् सबके  विकास को ऊपर रख , कार्य कर रही है , निश्चय ही  इस दिशा में  अति शीघ्र निर्णय ले, क्षेत्र व् देश की जनता को विकास की एक और  सौगात देगी। 
अंत में  आजादी के पर्व पर शहीदों को नमन करते  हुए , जय हिन्द ! जय भारत !! 





5.6.18

सरकारी नौकरी

सरकारी नौकरी  

न्यूज-पेपर्स में हाल के दिनों में न्यूज आयी कि रेलवे की 90,000 रिक्तियों (vacancies) के लिए 2.50 करोड़ उम्मीदवारों ने आवेदन किया। यदि  सभी आवेदकों को 500 रूपये  के आवेदन शुल्क वाला उम्मीदवार मान लिया जाए तो रेलवे के पास लगभग 1250  करोड़ की भारी भरकम रकम आवेदन शुल्क जमा हो गई।  
 अधिसंख्य युवा रोजगार सुरक्षा, उन्नति के सुअवसर आदि लाभों के कारण सरकारी नौकरी को ही अपनी पहली पसंद के रूप में चुनते है।    
  सरकारी  नौकरी के लिए आवेदन पत्रों की अत्याधिक  संख्या को देख , यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। परन्तु सरकारी नौकरी की संख्या  कम होने के कारण  व् युवाओं की अत्याधिक संख्या को देख यहां यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि  सरकारी नौकरी की  स्तिथि  ऊँट के मुहं में जीरा के समान है।  यहाँ अनार सौ बीमार वाले हालत हैं।   

 निरंतर लागू होते पे कमीशनों ने सरकार पर आर्थिक बोझ लाद ,कमर तोड  कर रख दी।  केंद्र व्  राज्य सरकारें चाह कर भी नई भर्ती नहीं कर पा रहीं है।  इससे  एक ओर  जहां युवा बेरोजगार है वहीं सरकार में युवा  व् टेक सेवी कर्मचारियों की भारी कमी है। कर्मचारियों की कमी को पूरा करने  लिए जहां रिटयरमेंट की आयु बढ़ाई जा रही है।  सेवानिवृत कर्मचारी को  को पुनः काम पर रखा जा रहा है। परन्तु सरकारों के इन कदमों से युवाओं का भविष्य चौपट हो रहा है।    
  सरकार के पास एक उपाय यह है कि  युवाओं को  5—10 वर्ष की अवधि  तक देश सेवा के लिए फिक्स मासिक वेतन भत्ते  जैसे Rs.15000- Rs.20000  पर  नियुक्ति किया जाए। निर्धारित अवधि  पूर्ण पर ऐसे कर्मचारियों को  नियुक्त पद के बराबर  पूर्ण वेतनमान  प्रदान किया  जाए।    
इस कदम से  देश में युवा  बेरोजगारी कम होगी । सरकार में युवा टेलेंट आएगा। साथ ही नए वेतनमानों का सरकारों पर अधिक आर्थिक भार भी न पड़ेगा। कुशल वर्क  फ़ोर्स  बढ़ने से सरकार की कायर्कुशलता बढ़ेगी 
इस नीति से सामाजिक, आर्थिक  व् राजनैतिक लाभ भी होगा। युवा को देश सेवा का अवसर मिलेगा ,जिसमें वो अपने टेलेंट का  योगदान दे सकेगा 
   देश के नीति निर्धारकों  को इस विषय पर विचार करना चाहिए।  सचमुच में यह कदम सबके साथ-सबके विकास में एक मील का पत्थर साबित होगा। 
जयहिंद !  जय भारत !

2.6.18

मेट्रो वॉक

मॉर्निंग वॉक , इवनिंग  वॉक  तो  सभी ने सुना है, पर  “मेट्रो-वॉक” भी हो सकती है , यह 01.06.2018 को घटित हुआ।   शाम लगभग 6-7 के बीच आंधी के कारण  दिलशाद-रिठाला मेट्रो लाइन पर लाइन नंबर-1 में रूकावट पैदा होने से मेट्रो सर्विस में रुकावट पैदा हो गई।  मेट्रो सेवा  काफी लंबे अंतराल से  रिठाला से तीस हजारी के बीच ही चली। 
 शाहदरा , दिलशाद गार्डन  आदि स्थानों पर जाने  वाले यात्रियों  को काफी असुविधा  हुई।  भारी भीड़ के कारण  तीस हजारी से  उचित सार्वजनिक  यातायात का  साधन न मिलने के कारण सैकड़ों की संख्या में पैदल यात्री बस अड्डे  पुल  से  शास्त्री पार्क ,सीलमपुर की ओर “मेट्रो-वॉक” करने लगे।   
पॉजिटिव  सोच ने ही  इस  पैदल मार्च को मेट्रो-वॉक का नाम दिया । जिसमें हल्दी लगी फिटकरी रंग चोखा आया  देखते ही देखती सैकड़ों की संख्या में ऑफिस से घर लौटते लोग मेट्रों -वॉक का अटूट  हिस्सा बन गए।     
 यमुना पुल  से रात्रि  लगभग नौ बजे गुजरते हुए  शांत  यमुना नदी की ओर  से हवा के   ठन्डे  झोंके यमुना मैया के आर्शीवाद  से कम  न लग रहे थे। कुछ लोग  बीच-बीच में  पानी , ठंडा  से अपनी थकान मिटाने के  पटरी पर बैठे  थे । लोग  पिकनिक जैसा मजा लेने पर उतारू थे।  
ऐसा लग रहा था मानों सभी   मेट्रो वॉक  से  सुखद   स्वास्थ्य  लेने का मौक़ा ढूंढ रहे थे। जो मेट्रो की खराबी ने  उन्हें प्रदान कर दिया।  सकारात्मक  सोच का ये ही तो लाभ  होता है।  ठीक इसी  कहावत की तरह - गीदड़ जब गिर जाये खाई में , तो सोचे आज की रात यहीं विश्राम सही। निश्चित ही यह मेट्रो वॉक अदभुत  व् अकल्पनीय थी ।आशा है आज सभी की मेट्रो वॉक  सुखद रही होगा।  
  कल का दिन हम सब के लिए शुभ हो।  इसी के साथ- शुभ रात्रि। 


27.5.18

सिक्के बंदी

4 वर्ष के कार्यकाल में मोदी सरकार ने काफी  चर्चित व् सराहनीय  कार्य किये जैसे अरब देशों में फंसे भारतीयों की सुरक्षित व् सफल वापसी, सर्जिकल स्ट्राइक, ऑपरेशन ऑल आउट, नोट बंदी, एक देश-एक टैक्स- GST, आदि-आदि । परन्तु अभी भी एक कार्य ऐसा है जिसे तुरंत पूरा किये जाने की आवश्यकता है। वो है- सिक्का-बंदी।
  जैसा कि  सभी जानते है कि नोट बंदी के बाद चलन (Circulation) में भारी मात्रा में देश रूपये के सिक्के आ गए ।  बैंक, आम जनता इनके माध्यम से लेन -देन में असुविधा का अनुभव करते है। धातु के बने यह सिक्के रख-रखाव व् लेन-देन में असुविधाजनक होने के कारण बैंक भी ग्राहक के खाते में जमा करने से हिचकते है। 
बैंकों में न जमा होने के कारण आम भारतीयों की व्यापारिक तरल पूंजी इन दस रूपये के सिक्कों में फंस कर रह गयी है। अभी हाल में ही एक न्यूज आयी कि मिल्क की एक कम्पनी के पास पचास लाख से ऊपर के अधिक के दस रूपये के सिक्के है । ऋण वापसी में बैंक इन सिक्को को लेने से आना-कानी कर रहा है । जिससे उस कम्पनी का बैंक लोन डिफाल्टर का खतरा पैदा हो गया है।  पेट्रोल पम्प आदि में इन सिक्को के भारी मात्रा में जमा होने की खबर है।
इस आधार कहा जा सकता है कि दस के सिक्को के रूप में देश में करोड़ों रूपये की तरल पूंजी का धारा प्रवाह रूक गया है। व्यापारिक पूंजी ब्लॉक हो गई है। 
इससे छोटे फुटकर व्यापारी जैसे दूध वाले, फल-फूल-सब्जी वाले, चाय वाले, कबाड़ी, आइस क्रीम वाले व् इसी प्रकार के छोटे-छोटे व्यापारी के व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। 
केंद्र सरकार से अनुरोध है कि साफ़ सुथरे सिक्कों की पॉलिसी के तहत बिना किसी देरी के  सिक्के-बंदी की नीति  लागू करे। जिसके अंतर्गत  दस के सिक्के के अतिरिक्त अप्रचलित व् खराब हुए  सिक्को को बैंकों या किसी अन्य एजेंसी के माध्यम से वापिस लिया जाए। ताकि छोटे व् मझोले व्यापारियों को आर्थिक संकट से समय रहते बचाया जा सके। यकीन मानिए इस सिक्के-बंदी से सरकार को सबका साथ मिलेगा और  सिक्का-बंदी में अवरुद्ध पूंजी पुनः बाजार में आने पर   सबके विकास भी होगा 

11.5.18

बदलती डेमोग्राफी


एक सार्वभौमिक सत्य (Universal Truth) है कि सूर्य हमेशा ही पूर्व से ही उगता है। परन्तु फ़िजिक्स-सांइस अथवा मैथ्स की तरह सामाजिक-राजनैतिक नियम यूनिवर्सल न होकर समय स्थान के अनुसार बदलते रहें के कारण परिवर्तनीय श्रेणी में आते है। 
सत्ता सुख के लिए 1947 में नेताओं ने देश को  धार्मिक आधार पर विभाजित कर दिया। आजादी के बाद भी हमेशा सत्ता में बने रहने के लिए नेता लोग तरह तरह की तिकड़म लगाते रहते है। शब्दों का एक्स 

जनसंख्या अनुपात ( डेमोग्राफी) भी अटल सत्य नहीं है।  जैसा कि हिन्दुस्तान में आज नेता मान रहें हैँ।  
 भारत की जनसख्या अनुपात में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। देश-काल अनुसार नियम बदलते रहते है । समय के अनुसार बदलते नियम ही देश व् समाज को उन्नतिशील बनाते है। 
“डेमोग्राफी” अर्थात जनसंख्या अनुपात भी कुछ ऐसा ही है। अफगानिस्तान , पकिस्तान , बांग्लादेश  की “डेमोग्राफी” ( जनसख्या अनुपात ) बदलने का परिणाम यह हुआ कि आज यह देश हिन्दू बहुल से मुस्लिम बहुल हो गए।    जैसा कि  ऐतिहासिक सत्य है कि हिन्दुस्तान का बंटवारा हिन्दू -मुस्लिम धर्म के आधार पर हुआ। 1947 की जनसांख्यिकी अर्थात जनसंख्या अनुपात  (“डेमोग्राफी”-Demography) के आधार पर आजादी के समय हिन्दुस्तान में हिन्दुओं को बहुसंख्यक व् मुस्लिम को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया। 
वर्तमान समय में केंद्र ने छह धार्मिक अनुयाइयों- मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख ,जैन व् पारसी शामिल हैं, को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक घोषित कर रखा है व् सरकार ने अल्पसंख्यक को सामान्य नागरिकों के समानधिकार के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के विशेषाधिकार व् लाभ दे रखे है।    
 70 वर्ष बाद  आज हिन्दुस्तान के जनसंख्या अनुपात में (“डेमोग्राफी”) बड़ा परिवर्तन आया है । आंकड़ों के मायाजाल में जहां एक और राष्टीय स्तर पर हिन्दू बहुसंख्यक है, वही राज्य स्तर पर 9 राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक है।  परन्तु राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक का नियम लागू न होने से, राज्य स्तर के हिन्दू को अल्पसंख्यक के विशेष अधिकार से वंचित कर रखा है। व् उनका कुछ राज्यों से पलायन भी हुआ है।  
 हिन्दू की धार्मिक आजादी , जान-माल की सुरक्षा को नजरअंदाज सा किया जा रहा है। इसी कारण राज्य स्तर पर पलायन की समस्या है। यदि जिला स्तर पर देखे तो कथित बहुसंख्यक की स्तिथी और भी भयावह है।
इन्ही सभी कारणों के दृष्टिगत रख केंद्र सरकार को 1947 के अल्पसंख्यक के पैमाने को बदल , अप्ल्संख्यक को परिभाषित करना चाहिए।  केंद्र को राज्य व्  जिला स्तर पर वर्तमान जनसंख्या अनुपात (डेमोग्राफी) के आधार पर अल्प्संख्यकता का पैमाना बनानां चाहिए। ताकि सभी भारतीय नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के राज्य व् जिला स्तर पर धार्मिक व् व्यक्तिगत सुरक्षा प्रदान की जा सके। 
 यदि आंकड़ों पर नजर डालें तो देश में  बहुसंख्यक का राज्य , जिला स्तर पर  उत्पीड़न व्  पलायन बहुत मात्रा में हुआ है। जम्मू व् काश्मीर , पंजाब, आसाम, बंगाल , उत्तरप्रदेश जैसे राज्य इसके चंद उदाहरण है।  
 दस वर्ष में एक बार होने वाली जनगणना में आकड़ों के लिए हिन्दू बहुसख्यक की सभी जातियों को मिलाकर हिन्दू धर्म में शामिल कर लिया जाता है, परन्तु चुनाव के समय सत्ता के लिए बहुसंब्ख्यक को जातियों में बाँट ( दलित , जाट राजपूत , ब्राह्मण आदि ) अप्ल्संख्यक बना दिया जाता है।  इसका सीधा-सीधा नुक्सान बहुसंख्यक को उठाना पड़ रहा है। उसकी सुरक्षा, धार्मिक आजादी को हानि पहुंचाई जाती है।हिन्दूओं का पलायन हो रहा है। हिन्दू धर्म में वीरता, शौर्य व्  पवित्रता के प्रतीक भगवा रंग को  आतंक से जोड़ बदनाम करने की कोशिश की जाती है। 
     आज देश व् Tax Payers (टेक्स पेयर्स) के पैसे से अवैध घुसपैठिए इंडिया को फ्री पोर्ट की तरह समझ यहां रहकर अल्पसंख्यक का दर्जे ले, विशेष सुविधाएँ भोग रहे है। वहीं सामान्य अधिकार प्राप्त राष्ट्रीय स्तर पर बहुसंख्यक अपने अधिकारों के लिए गिड़गिड़ाता सा नजर आ रहा है। 
 देश की सरकार को इन बिन्दूओ पर भी विचार करना चाहिए।  तभी सबका साथ व् सबका विकास संभव है।  हर भारतीय को प्रण  लेना होगा कि उसे  मिलकर हिंदुस्तान को हिन्दुस्तानियों का देश बनानां है न कि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का। जैसा कि  सत्ता के लिए नेता कर रहें है। इसी में हम सबकी भलाई है।  

 जय हिन्द जय भारत !





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