3.9.18

बचपन -एक प्ले स्कूल


    हमारे बचपन में प्ले-स्कूल नहीं होता था। हाँ ! एक ही प्ले-स्कूल था जो  किताबी ज्ञान पर आधारित न हो, व्यवहारिक ज्ञान व् प्रकृति से करीब  से जुड़ा था । 
प्ले-स्कूल के लिए पांच-छह बरस तक हम अपने छोटे से फार्म हाउस (खेत खलियान )  में घूमना, गन्ने के खेतों में लुका-छुपी (आइस-पाइस) खेलना, केचुओं, मेढकों, झींगुर आदि से खेलना, मटर के सफ़ेद-नीले-जामुनी-लाल-गुलाबी फूलों के साथ अटखेलिया करना, मटर के पापड़ों (फलियों) को जी भर कर खेत में खाना, अपने बचपन के प्ले स्कूल की मटरगस्ती की दिनचर्या थी।  
 प्ले-स्कूल  में फरवरी-मार्च में मुलायम हरी बरसीम की फसल में तितलियों को पकड़ने के लिए पागलों की तरह उनके पीछे-पीछे  दौड़ना , तितली का लाल-पीला-गुलाबी रंग हाथ पर लग जाने पर, शर्ट से पौंछना, आये दिन के करतबों में शामिल था ।  

 मुलायम , मखमली हरी-हरी बरसीम की फसल में ( वह घास है जो सर्दी में पशुओं को हरे चारे के रूप में खिलाई जाती है) हम गधे की तरह लौट-पोट होते हुए, आज के मकरासन सा कुछ करते थे ( यह आसन कमर, पीठ दर्द में सहायक है ) इससे जो खुशी मिलती थी,  उसकी बात ही कुछ और थी। 
खड़ी बरसीम की फसल के ऊपर लौटने से  वह जमीन पर बिछ जाती थी, जिससे उसकी कटाई में काफी कठिनाई होती थी।  अतः  डांट के डर से गेहूं या गन्ने के खेत में छुप, दम-साध कर बैठ जाते थे। हमारे प्ले-स्कूल में यह आज की तरह का सेल्फ मेडिटेशन  अर्थात ध्यान करने का  अपनी तरह का बचाव के जुगाड़ था। ऐसा करने से एक पंथ दो काज हो जाते थे। डांट  भी न पड़ती व् पिताश्री बात भूल, हमारे साथ लुका-छुपी में शामिल हो जाते थे। जिससे हींग लगे न फिटकरी रंग चौखा आता था   

 उन दिनों वर्षा लगातार हप्ते भर या पंद्रह पंद्रह दिन (पखवाड़े )तक चलती रहती थी।  वृक्षारोपण के लिए जुलाई-अगस्त में खेतों के किनारे बाड़ व् जलावन की लकड़ी लिए शीशम के पेड़ लगाये जाते थे । शरारत  में हम शीशम की  डंडी ही जमीन में गाड़ देते थे । लगातार  बारिश से बिना जड़ वाली रोपी  डंडी  भी  हरी हो , जीवन का सन्देश दे हम पर मुस्कराने लग जाती थी। जो हमारे बालपन में हमें खुशी व् उलझन से  भर देती थी। 

 बरसात के दिनों में शाम को अन्धेरा होते ही जुगनू खेतों में , फसलों पर, घर- आँगन में चमकने लगते थे। दौड़कर पकड़ना व् उनमें पैदा होने वाली रोशनी पर गहरी छान-बीन/खोज ,रिसर्च करना, यह हमारे बचपन में आये दिन का काम था।    

सितम्बर के अंत, अक्टूबर के शुरू में जब  वर्षा ऋतु खत्म हो जाती थी, गांव के तालाब/ बड़ी डाबर में कमल के फूल खिलने शुरू हो जाते थे। 
हम गहरे पानी से कमल के फूलों को खोखली डंठल सहित पानी से बाहर  केले के पेड़ से बनी नाव तैरते हुए गहरे पानी से निकाल लाते थे। केले के तने पर क्यों , कैसे तैरते थे यह बचपन में किसी छुपे रहस्य से कम न था।  
वर्ष 2018 में इसी तरह का नाव का प्रयोग केरल में आयी बाढ़ में  लोगों के बचाव के लिए किया गया ,ऐसा न्यूज पेपर के माध्यम से पढ़ने को मिला है।   


 बचपन के प्ले-स्कूल में  बछड़े के दूध में भागीदार बन गाय का दूध पीना भी एक मजेदार प्ले था। कहते है -आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है।   दूध की आवश्यकता ने खेल-खेल गाय का दूध निकलना सिखा दिया । 
दूध निकालने के बाद गाय बछड़े के लिए दूध उतारती है। मैं भी थनों से निकलते गर्म दूध में बछड़े व् पालतू बिल्ली का सहभागी बन जाता था।  बिल्ली मौसी दूध के चक्कर में गाय के आस-पास ही मंडराती रहती थी , उसके  मुहं में दूर से दूध की धार मारना प्ले-स्कूल की ट्रेनिंग का एक भाग था। खेल-खेल में अपने बागीचे के बाग़ में आम, अमरूद, जामुन के पेड़ पर उतरना-चढ़ना, लटकना ,पेड़ पर लगे पक्षियों के घोंसलों में अण्डों व् उनके बच्चों की छान-बीन करना , ऊंची से ऊंची डाल पर घंटों बैठ ध्यान लगाकर बैठना बड़ा ही अच्छा लगता था। 

डाल पर बैठ ,ध्यान में दीन-दुनिया से बेखबर कभी-कभी तो दाल टूटकर  पैरासूट की तरह जमीन पर सूखे पत्तों पर धम से आ गिरती। ऐसे में हल्की सी मुस्कान से ध्यान भंग हो जाता। घर वालों की डांट के भय  से ,पेड़ से गिरने की घटना का जिक्र न हो जाये, यही सोचकर हम  घर में भीगी बिल बन  दबे-पाव दाखिल हो जाते, चुपके से खटिया पर सो जाते ।  


भैस, गाय, बैल, भैसा आदि संग गर्मी में अपने इस्लामिया प्राइमरी स्कूल जिसे सभी मदरसा कहते थे, के पीछे जोहड़ में भैस की पीठ पर बैठ कर तैराकी का प्रशिक्षण लिया करते थे। 
उन दिनों गांव में कच्ची मिट्टी से बने मकान होते थे जिनकी  मरम्मत जोहड़ से निकले चिकने गारे (चिकनी मिट्टी ) से बरसात आने से पहले की जाती थी। जिसे अप्रैल-मई-जून माह  में तालाब से  निकाला जाता था। 
 प्ले करते हुए गारे से भरी बाल्टी तालाब के पानी से भर कर लाते  थे , पर न जाने क्यों  गहरे  पानी में गारे से भरी बाल्टी का वजन न के बराबर लगता था।  ऐसा क्यों होता था ? उत्सुकतावश इसे  बार बार  दोहरा कर हम अपने मन की जिज्ञासा शांत करते थे । 

 अंत में निष्कर्ष यह  कि  बचपन में हमे भले किताबी ज्ञान से दूर रहें हो परन्तु  प्रकृति के नजदीक रहकर व्यवहारिक ज्ञान व् पर्यावरण का सन्देश मिला।  जो यह कहता हुआ नजर आता था -"जीवो और जीनों दो में ही जीवन का असीम सुख है ।  बचपन की यादें फिर कभी अन्य ब्लॉग में !

जय हिन्द ! जय भारत !जय श्री कृष्ण ! जय श्री श्याम !


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