3.4.20

भाषा में जुड़ते नये शब्द

कोरोना जैसी भयंकर विश्वव्यापी माहमारी ने  देश-जहान में देशों की सीमा व् भाषा की दीवार को  तोड़ दिया है। हिन्दुस्तान, भारतीय उपमहाद्वीप में  बोली  व् समझी जाने  वाली हिन्दुस्तानी  भाषा- हिंदी  भी  इससे अछूती नही रही।  
वैसे  तो हिंदी में  देश-विदेश की 18 से अधिक भाषा के शब्द  रच-बस  गए है, यही कारण  है कि आज हिंदी भारतीय उपमहाद्वीप  में एक सम्पर्क  भाषा के  रूप में  उभरी हैसात समुन्द्र पार विदेशों में भी इसकी एक पहचान है।  प्रत्येक वर्ष हिंदी के  पॉपुलर शब्द ऑक्सफ़ोर्ड  की डिस्कनरी में  अंग्रेजी  की शोभा बढ़ा,  इंगिलश को मजबूत  बना  रहें है।
वैसे हिंदी भाषा बोलने  व् समझने  वालों को आम बोल-चाल व् न्यूज पेपर्स की  हिंदी धड़ल्ले से समझ में आती है, परंन्तु वहीं  इंग्लिश से हिंदी में “सरकारी ट्रान्सलेटेटिड”  भाषा को समझने में अच्छों-अच्छों के छक्के छूट जाते है।  सरकारी  फार्मों की  हिंदी को सही  माइनों  में  आम-जन  की हिंदी तो  कतई नहीं कहा जा सकता।  उसे महज द्विवभाषा की खानापूर्ति कहा जाए तो गलत नहीं होगा।  
 
होना तो यह चाहिए था जो शब्द बोलचाल में आम लोगों के शब्द  व् टेक्नीकल शब्द  जो हिंदी भाषा का  हिस्सा बन गए  है उन्हें सरकारी  भाषा में प्रयोग किया जाता तो स्तिथि  कुछ अलग होती। उदाहरण के लिए   जब संसद में हिंदी में बहस होती है या पं नरेंद्र मोदी  अपनी बात कहते है तो वह भारत ही नहीं पूरे  भारतीय महाद्वीप के लोगों तक आसानी से पहुंच जाती है। 
महामारी के कारण  आज कुछ शब्द आम व् खास लोगों की जुबान से नित्य बोले, सुने व् न्यूज पेपर्स में लिखे जाते है जिसे सभी  बखूबी समझते है  जैसे -सोशल डिस्टेंशिंग ( एक दूसरे से सामाजिक दूरी ) क्वारंटीन ( एकांत वाश/ एकांत में रखना/रहना ), कोरोना पॉजिटिव/निगेटिव। आदि आदि।  तो फिर हिंदी में इन्हें ज्यों का त्यों क्यों न रखा जाए Ɩ
  भाषा में समय-समय पर देश काल,परिस्तिथि के अनुसार परिवर्तन होते  रहते है। फिर  बदलाव ही प्रकृति का नियम है। चाहे वह धर्म हो या भाषा Ɩ इसी से भाषा, देश व् धर्म  समृद्ध  बनते है। भला इस इक्कीशवीं से  चौदहवीं सदी  या उससे पीछे कैसे लौटा जा सकता है Ɩ



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