25.7.21

बचपन जो अब सपना लगता है

बचपन जो अब सपना लगता है 

बचपन गावं में गन्ने खेत में कान्छी (गन्ने का  बीज)  बोते , गेहूं  बोते  व् काटते  हुए खेतों में ही बीता।  उन दिनों  गावं में सुबह की सैरप्राणायम , योगा  का चलन या ऑप्शन  न था।  इसकी कमी  हम लोग खेत  में काम करके  व् सिर  पर चारे  की गठरी को खेत से घर तक  को लादकर  पूरी  करते थे।    

सर्दी में  हरे चारे के लिए  बोई गयी हरी-हरी  बरसीम के खेत में बिछी हरियाली चादर पर लुढ़ककर हम लोग  मकरासन आसन  की कमी  पूरा करते थे   खेतों में चारा  काटते समय कलाई की एक्सरसाइज भी  योगा में होने वाली  सूक्ष्म  एक्सरसाइज  की तरह हो जाती थी । शाम होने पर सुनसान  खेत में पक्षियों की कलरव की बीच ध्यान लगाना भी योगा की तरह  ध्यान का हिस्सा था। 

हाथ की  चारा मशीन से चारा काटने से  कंधे  की   एक्सरसाइज होने  से कंधे जाम  खतरा टला रहता था ।  खेत में भूख लगने पर  हरी  सलाद के रूप में  मटर के रंग-बिरंगे, नीले-गुलाबी  फूलों  के खेत में  जाकर ,  कच्ची मीठी मटर  सलाद की तरह खाई जाती थी ,   सरसों के पीले फूलों के बीच, सरसो  की मुलायम व् मीठी  डंठल  के सलाद  आज  के सलाद  से बढ़कर कुछ  और ही  था।  

  बचपन में गेहूं , चावल व् अन्य  अनाज, दूध, घीफल- सब्जी पर आत्मनिर्भरता कमाल भी की थी।   खेत से  बथुए को तोड़ गरमगरम बथुए के पराठे  , खेत में चने का साग, सोने सा खरा व्  मानों घर की मुर्गी दाल बराबर था। 

 तपती  दुपहरी  में आम के पेड़ों पर पकड़म-पकड़ाई व् अमरूद व् जामुन के पेड़ों पर उछलते-कूदते बिताना मानों किसी स्वर्ग से कम  न था। 

 स्कूली शिक्षा के साथ  घरेलू  कृषि  कार्य करना किसी  डबल इंजन की सरकार जैसे थे।  आम के आम  गुठली के दाम की तरह , एक पंथ दो काज थे   सुबह शाम  गाय  बछड़े संग  दूध  पीने  व् साथ में   म्याऊं-म्याऊं करती पालतू बिल्ली के मुहं में दूध की तेज धार मारआनंद का अनुभव करते थे । बिल्ली मौसी भी -"हक़ से मांगों"  की तरह  हमारे साथ  पूरा  आनंद लेती नजर आती थी   

  प्राइमरी  स्कूल के पीछे  एक लंबा चौड़ा  तालाब  था, जिसमें  दोपहर में  पशुओं की पूंछ पकड़ कर गहरे पानी में  हम तैरने  थे , आज भी वो दिन याद कर  दिल में सिहरन हो आती है

बड़े तालाब  में कमल के फूल तोड़ने के लिए केले के तने  की नाव  बनाकर उस पर  तैर , गहरे पानी से  कमल के फूल को  तोड़ना  व् उनकी  माला  बनाना सचमुच किसी सपने सा लगता है । 

बचपन मौज मस्ती काम-काज पढ़ाई- लिखाईघर-खेत, स्कूल कालेज , घास-फूंस की जिम्मेदारी में कब फुर्र हो गया  , पता ही न चला ।

 उन दिनों के  गावं  आज की तरह से नहीं  होते थे , बरसात में गावं के रास्ते  शहर से  पूरी तरह से कट  जाते थे, देर शाम , रात-बिरात गांव  में आना-जाना  सुरक्षा की  दृष्टि से सही न था  , सड़क बिजली न  थी , रात में चोरों  का डर था। 

पर आज के गांव   निश्चय ही बहुत  बदल गए है  , बिजली है, सड़क है, यातायात है , टॉयलेट की  सुविधा है गैस है , कहीं कही  पानी की नल है।  इसके लिए केंद व् राज्य की  सरकारें  बधाई के पात्र है।  

जय हिन्द जय भारत 

 


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